साहित्य और समाज
अथवा साहित्य समाज का दर्पण है
अथवा साहित्य और जीवन
रूपरेखा :-
- प्रस्तावना
- साहित्य और समाज का अटूट सम्बन्ध
- साहित्य और समाज की परस्पर निर्भरता
- हिंदी साहित्य की समाज सापेक्षता
- उपसंहार
प्रस्तावना :-
मनुष्य के भावजगत के साथ ही जन्मा है साहित्य। आत्मप्रकाशन की अदम्य लालसा ने विविध रूपों में मूर्त होकर, विविध अभिधाओं में ध्वनित होकर मानव-मन को तुष्टि प्रदान की है।
साहित्य भी आत्माभिव्यक्ति की एक सरल भंगिता है।
कंठ से कलम तक की यात्रा में साहित्य ने समाज का समुचित दुलार पाया और स्वयं भी समाज को दुलराया, हँसाया, रुलाया, मार्ग-दर्शन कराया।
कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध, पत्र-पत्रिका न जाने कितनी धाराओं में आज सहित्य की सुरसरि प्रवाहित है जो अपनी पावन शीतलता से जन-समाज के मनस्तापों को धो रही है।
कहा जा सकता है कि साहित्य समाज की अभिव्यक्ति है।
साहित्य भी आत्माभिव्यक्ति की एक सरल भंगिता है।
कंठ से कलम तक की यात्रा में साहित्य ने समाज का समुचित दुलार पाया और स्वयं भी समाज को दुलराया, हँसाया, रुलाया, मार्ग-दर्शन कराया।
कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध, पत्र-पत्रिका न जाने कितनी धाराओं में आज सहित्य की सुरसरि प्रवाहित है जो अपनी पावन शीतलता से जन-समाज के मनस्तापों को धो रही है।
कहा जा सकता है कि साहित्य समाज की अभिव्यक्ति है।
साहित्य और समाज का अटूट सम्बन्ध :-
साहित्य का सृजन मनुष्य करता है और मनुष्य समाज का अभिन्न अंग है। उनका तन और मन दोनों ही समाज की देन होते हैं। फिर इस मनोसृष्टि साहित्य का समाज से अटूट सम्बन्ध होना ही चाहिए।
आचार्यों ने साहित्य की परिभाषा में कहा है - हितेन सहितं साहित्य। जो हित के सहित है वह साहित्य है। साहित्य में निहित यह हित किसका हो सकता है ? निश्चत ही मानव-समाज का। जिस सर्जन में समाज का हित सन्निहित है, उसमें समाज का सुख-दुःख प्रतिबिम्बित होना ही चाहिए। उसमें समाज की प्रगति और विगति का लेखा होना ही चाहिए। उसे समाज की हर छवि का प्रतिदर्शी होना चाहिए। एक श्रेष्ठ साहित्य की यही भूमिका रही है।
आचार्यों ने साहित्य की परिभाषा में कहा है - हितेन सहितं साहित्य। जो हित के सहित है वह साहित्य है। साहित्य में निहित यह हित किसका हो सकता है ? निश्चत ही मानव-समाज का। जिस सर्जन में समाज का हित सन्निहित है, उसमें समाज का सुख-दुःख प्रतिबिम्बित होना ही चाहिए। उसमें समाज की प्रगति और विगति का लेखा होना ही चाहिए। उसे समाज की हर छवि का प्रतिदर्शी होना चाहिए। एक श्रेष्ठ साहित्य की यही भूमिका रही है।
साहित्य और समाज की परस्पर निर्भरता :-
साहित्य और समाज अपनी-अपनी समृद्धि के लिए एक दूसरे पर निर्भर रहते हैं। साहित्य को समाज का दर्पण कहते हैं।
इस दर्पण में समाज की हर छवि, हर भंगिमा प्रतिबिम्ब हुआ करती है। साहित्यकार की भावनाओं और विचार, आकांक्षाएं और सन्देश- सभी सामाजिक परिवेश की देन हुआ करती हैं। बहुत से साहित्यकारों ने स्वांतः सुखाय को अपनी रचनाओं का अपना लक्ष्य बताता है, लेकिन साहित्यकार का स्वांतः भी समाज की ही क्रिया-प्रतिक्रियाओं की रणनीति होती है।
साहित्य जहाँ समाज की मानसिक प्रगति और ऊर्जा का मानदंड है वहीं समाज भी अपनी समस्त आकाँक्षाओं की अभिव्यक्ति के लिए साहित्य का मुखापेक्षी रहता है।
साहित्य विहीन समाज एक निर्जीव प्रतिमा है। इसीलिये किसी कवि ने कहा है - मुर्दा है वह देश जहाँ साहित्य नहीं है।
साहित्य ने ही मानव समाज को पशुत्व से उठाकर मानवीयता के सिंहासन पर प्रतिष्ठित किया है। तभी तो कहा गया है - साहित्य-संगीत-कला-विहीन; साक्षात् पशुः पुच्छ-विषाण-हीनः।
इस दर्पण में समाज की हर छवि, हर भंगिमा प्रतिबिम्ब हुआ करती है। साहित्यकार की भावनाओं और विचार, आकांक्षाएं और सन्देश- सभी सामाजिक परिवेश की देन हुआ करती हैं। बहुत से साहित्यकारों ने स्वांतः सुखाय को अपनी रचनाओं का अपना लक्ष्य बताता है, लेकिन साहित्यकार का स्वांतः भी समाज की ही क्रिया-प्रतिक्रियाओं की रणनीति होती है।
साहित्य जहाँ समाज की मानसिक प्रगति और ऊर्जा का मानदंड है वहीं समाज भी अपनी समस्त आकाँक्षाओं की अभिव्यक्ति के लिए साहित्य का मुखापेक्षी रहता है।
साहित्य विहीन समाज एक निर्जीव प्रतिमा है। इसीलिये किसी कवि ने कहा है - मुर्दा है वह देश जहाँ साहित्य नहीं है।
साहित्य ने ही मानव समाज को पशुत्व से उठाकर मानवीयता के सिंहासन पर प्रतिष्ठित किया है। तभी तो कहा गया है - साहित्य-संगीत-कला-विहीन; साक्षात् पशुः पुच्छ-विषाण-हीनः।
हिंदी साहित्य की समाज सापेक्षता :-
विश्व के सभी समाजों पर वहाँ के साहित्य का युगांतरकारी प्रभाव पड़ा है। है। फ्रांस की राज्य-क्रांति रूसो और वाल्टेयर की लेखनी की आभारी थी। और इटली का कायाकल्प मेजिनी के साहित्य ने गढ़ा था। लेनिन की विचार धारा ही साम्यवादी रूस की परिकल्पना का आधार बनी है। इंग्लैंड को समृद्धि के सिंहद्वार पर ले जाने वालों में रस्किन भी स्मरणीय रहेगें। हिंदी साहित्य भी कभी समाज निरपेक्ष नहीं रह सका।
रासो साहित्य में ध्वनित तलवारों की झंकारें और युद्धोन्मत्त हुंकारें, तत्कालीन समाज की परिस्थितियों की प्रतिच्छायायें हैं, भक्तिकालीन साहित्य भूपतियों से निराश जनता की जगत्पति से कातर पुकार ही तो है।
पराजय और उत्पीड़न की कुंठाओं ने ही कबीर, सूर और तुलसी की भक्ति धारा को जन-मन का जीवनाधार बनाया था। रीतिकालीन कवियों का श्रृंगार के पंक में आकठ मग्न काव्य भी तत्कालीन समाज के गम गलत करने का साधन है।
आधुनिक काव्य में घुमड़ते देशप्रेम, क्रांति और प्रगतिवादिता के स्वर समाज के नवोत्थान की ही अनुगूँजें हैं। आज का हिंदी साहित्य अपनी हर विधा के देशकाल से कदम से कदम मिलाकर चल रहा है।
रासो साहित्य में ध्वनित तलवारों की झंकारें और युद्धोन्मत्त हुंकारें, तत्कालीन समाज की परिस्थितियों की प्रतिच्छायायें हैं, भक्तिकालीन साहित्य भूपतियों से निराश जनता की जगत्पति से कातर पुकार ही तो है।
पराजय और उत्पीड़न की कुंठाओं ने ही कबीर, सूर और तुलसी की भक्ति धारा को जन-मन का जीवनाधार बनाया था। रीतिकालीन कवियों का श्रृंगार के पंक में आकठ मग्न काव्य भी तत्कालीन समाज के गम गलत करने का साधन है।
आधुनिक काव्य में घुमड़ते देशप्रेम, क्रांति और प्रगतिवादिता के स्वर समाज के नवोत्थान की ही अनुगूँजें हैं। आज का हिंदी साहित्य अपनी हर विधा के देशकाल से कदम से कदम मिलाकर चल रहा है।
उपसंहार :-
साहित्य की रचना कभी शून्य में नहीं हो सकती। जो साहित्य-समाज सापेक्ष नहीं होगा, वैयक्तिक प्रतिक्रियाओं और कुंठाओं का एकांत प्रलाप होगा, वह चिरंजीवी और प्रभावशाली नहीं हो सकता।
कबीर की उलटबाँसियाँ और प्रयोगवादियों की घोर वैयक्तिक अभिव्यक्तियाँ, कौतूहल और मनोरंजन की सामग्री तो बन सकती हैं किन्तु सत्यम, शिवम् सुंदरम की त्रिवेणी बनकर समाज की आत्माभिव्यक्ति की पिपासा को शांत नहीं कर सकतीं।
अतः साहित्य और समाज का परस्पर अटूट और अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है।
कबीर की उलटबाँसियाँ और प्रयोगवादियों की घोर वैयक्तिक अभिव्यक्तियाँ, कौतूहल और मनोरंजन की सामग्री तो बन सकती हैं किन्तु सत्यम, शिवम् सुंदरम की त्रिवेणी बनकर समाज की आत्माभिव्यक्ति की पिपासा को शांत नहीं कर सकतीं।
अतः साहित्य और समाज का परस्पर अटूट और अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है।
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