मेरे प्रिय कवि
अथवा लोकनायक तुलसीदास
अथवा हमारे आदर्श कवि -तुलसीदास
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Essay on My Favorite Poet |
रुपरेखा :-
- प्रस्तावना
- तुलसी का व्यक्तित्व और कृतित्व
- लोकनायक तुलसी
- समन्वय की विराट साधना
- तुलसी का कवित्व
- भाषा-शैली
- उपसंहार
प्रस्तावना :-
सत्य -शिव -सुन्दर सृजन, जिस लेखनी का धर्म हो।
है धन्य, केवल लोक-मंगल जिस सुकवि का कर्म हो ।।
हिंदी में न कवियों की कमी है और न कवि-विशेष के प्रेमियों की। अपनी अभिरुचि के अनुसार सहृदय-जन अपने प्रिय कवि का वरण कर लेते हैं। आचार्यों ने काव्य-रचना के अनेक उद्देश्य माने हैं - यश, अर्थलाभ, लोकमंगल, उपदेश आदि-आदि। यश और अर्थलाभ के लिए बिक जाने वाले कवियों से भला लोकमंगल की क्या आशा की जा सकती है। मेरा प्रिय तो वही कवि हो सकता है, जो अपनी वाणी का प्रयोग लोक-हित में करे। ऐसे कवि गोस्वामी तुलसीदास हैं , जिनका आदर्श है -
कीरति, भनिति, भूति भल सोइ, सुरसरि सम सब कर हित होई।
तुलसी का व्यक्तित्व :-
तुलसी ने कहाँ और कब जन्म लिया, इस पर शोधशास्त्रियों में मतभेद हो सकता है किन्तु अभावों में अनाथवत पलने वाले इस महाकवि ने एक निराशा-मग्न जाति को अपनी पावन वाणी का सम्बल देकर सनाथ कर दिया, यह बात निर्विवाद है। माता-पिता ने जिसे अमंगलकारी मानकर त्याग दिया है, उसी बालक ने लोकमंगल की साधना में अपना जीवन समर्पित कर दिया -
माता-पिता जग जाहि तज्यौ, विधिहू न लिखी कछु भाग बड़ाई।
जिस लोक की कल्याण-साधना में तुलसी ने अपना समस्त कौशल और ज्ञान-भंडार अर्पित किया। उसी लोक ने उन पर व्यंग्य प्रहार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी -
धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूत कहौ,जुलहा कहौ कोऊ।
काहू की बेटी सों बेटा न व्याहब, काहू की जाति बिगारों न सोऊ।।
ऐसे निरादूत और निराश्रय तुलसी की बाँह संत नरहरिदास ने पकड़ी और तब समाज को मिला मानसकार का शिल्पी तुलसीदास।
लोकनायक तुलसी :-
जो लोक-मन को अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से आभारी बनता है, समाज का मार्गदर्शन करता है, महान जीवन-मूल्यों को जीवनदान देता है, वही महापुरुष लोकनायक के रूप में लोकमानस पर शासन करता है। तुलसी के आविर्भाव का काल बड़ा संकटमय था। भारतीय जनता की आस्थाएं और विश्वास डगमगा रहे थे। उसे ऐसा अभयदानी और मार्गदर्शक चाहिए था जो निराशा के अन्धकार से निकालकर उसके जीवनादर्शों को संजीवनी पिला सके। यह महान भूमिका संत तुलसी ने ही निभाई। इस पावन दायित्व को निभाने के लिए उन्होंने समन्वय की विराट आयोजना की।
समन्वय की विराट साधना :-
तुलसी का काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है। उन्होंने लोक और शास्त्र का, ग्राहस्थ्य और वैराग्य का, निर्गुण और सगुण का भाषा और संस्कृति का, अपाण्डित्य का, ऐसा अपूर्व समन्वय किया है कि भारत का लोकनायकत्व सहज ही उनके व्यक्तित्व का वरण कर बैठा है।
लोक और शास्त्रों का समन्वय :-
दर्शन के कठिन विषयों को कविता की हृदयगम्य भाषा में प्रस्तुत करके तुलसी ने लोक और शास्त्रों के बीच एक सुगम सेतु का निर्माण कर दिया।
निर्गुण और सगुण का समन्वय :-
परमात्मा के निराकार और साकार स्वरूप को लेकर चलने वाली विरोधी भावनाओं को तुलसी ने सहज ही समन्वित कर दिया। वह कहते हैं -
सगुनहिं अगुनहिं नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बधु वेदा।
इसी प्रकार ज्ञान और भक्ति को भी सामान पद प्रदान करके उन्होंने लोकमानस को सुलभ साधना का मार्ग खोल दिया है -
भगतिहिं ज्ञानहिं नहिं कछु भेदा। उभय हरहिं भव सम्भव खेदा।
धर्म और राजनीति का समन्वय :-
भले ही आज के राजनीतिज्ञ स्वार्थवश धर्म और राजनीति को परस्पर विरोधी बताते रहें किन्तु तुलसी ने मानस की प्रयोग-भूमि पर यह सिद्ध कर दिखाया है कि धर्म के नियंत्रण के बिना राजनीति अपने नीति तत्त्व को खो बैठती है। पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए राम का राज्य-परित्याग करके वन को चले जाना, भरत का सिंहासन को ठुकरा देना, धर्म और राजनीति के समन्वय का प्रशंसनीय प्रयास है। तुलसी स्पष्ट घोषणा करते हैं -
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृप अवसि नरक अधिकारी।
सामाजिक समन्वय :-
समाज में व्याप्त मिथ्या गर्व और अभिजात-भावना को भी तुलसी ने नियंत्रित किया। उनकी दृष्टि में मानवीय श्रेष्ठता का मानदण्ड जाति या वर्ण नहीं, अपितु आचरण है। भगवान राम का भक्त उनके लिए शूद्र होते हुए भी ब्राह्मण से अधिक प्रिय और सम्मान्य है। चित्रकूट जाते हुए महर्षि वशिष्ठ रामसखा निषाद को दूर से दंडवत प्रणाम करते देखते हैं तो बरबस हृदय से लगा लेते हैं -
रामसखा मुनि बरबस भेंटा। जनु महि लुठत सनेह समेटा।
तुलसी के राम शबरी के भक्तिरस से भीगे जूठे बेरों को बड़े प्रेम से खाते हैं किन्तु यही तुलसी परशुराम ( ब्राह्मण )की जनक राजसभा में मिट्टी किरकिरी करा देते हैं। ब्राह्मण रावण को भी वह बध्य मानते हैं।
एक संत, एक उपदेशक, एक लोक-हितैषी और लोकनायक के रूप में ही नहीं, विशुद्ध कवि के रूप में भी तुलसीदास अद्वितीय हैं। आपके काव्य का भावपक्ष और कलापक्ष - दोनों ही समृद्ध और संतुलित हैं
तुलसी का कवित्व :-
भावपक्ष :-
महाकवि तुलसीदास रससिद्ध कवि थे। उनके काव्यों में विविध रसों का बड़ा स्वाभाविक परिपाक है। उनके रामचरितमानस जैसी श्रृंगार, शांत तथा वीर रसों की सुंदर की सुन्दर त्रिवेणी अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होती है। श्रृंगार के दोनों पक्षों ( संयोग-वियोग ) का बड़ा हृदयग्राही वर्णन कवि ने किया है। रामचरितमानस ही क्या, कवितावली, गीतावली, विनय-पत्रिका, आदि सभी कृतियों में उनकी रस-योजना बड़ी सुन्दर, विशद, और स्वाभाविक है ; यथा -
लोचन मग रामहिं उर आनी। दीने पलक कपाट सयानी। ( श्रृंगार )
* * *
अवधेश के द्वारे, सकारे गई, सुत गोद में भूपति लै निकसे।
अवलोकि कै सोच विमोचन को ठगि सी रहि,जे ठगे धिक ते।। ( वात्सल्य )
वीर, रौद्र, करुण, अद्भुत आदि रसों का सजीव चित्रण कवि द्वारा किया गया है। विनय-पत्रिका में भक्ति व विनय की पराकाष्ठा है।
श्रेष्ठ जीवन-मूल्यों को भी तुलसीदास ने अपने काव्यों में ही प्रतिष्ठा प्रदान की है। उनका काव्य सत्यम, शिवम्, सुन्दरम की भव्य साधना है।
कलापक्ष :-
तुलसी का कलापक्ष भी उतना ही सबल चित्ताकर्षक है। ऐसा कौन-सा अभागा छंद होगा जिसे तुलसी की लेखनी का चामत्कारिक संस्पर्श न मिला होता हो। लोक-छंद भी उनकी प्रसाद पाकर अमर हो गया।
सभी प्रमुख अलंकार भी चरम-सौंदर्य योजना के साथ उनके काव्य में उपस्थित हैं ; यथा -
हाट, बाट, कोट, ओट, अटन, अगार, पौरि, खोरि-खोरि दौरि-दौरि दीनी अति आगि है। ( शब्दालंकार )
* * *
महिमा-मृगी कौन सुकृति की खल-वच-विसिखन बाँची। ( रूपक )
भाषा-शैली :-
ब्रजभाषा, अवधी और संस्कृत तीनों भाषाओं में तुलसी ने साधिकार रचना की है। कवितावली और विनयपत्रिका में उनकी ब्रजभाषा का सौन्दर्य और रामचरितमानस में अवधी का परिष्कृत स्वरूप विद्यमान है। मानस के प्रत्येक काण्ड के आरम्भ में संस्कृत श्लोक से शुभारंभ तो है ही, नमामिशमीशान निर्वाण रूप उनकी संस्कृत की सरस-माधुर्यमय रचना का प्रमाण है।
प्रबंधक, खण्डकाव्य और मुक्तक :-
सभी काव्यों-शैलियों में अपने सफलता से काव्य-रचना की है। इसके अतिरिक्त वर्णात्मक, शब्द-चित्रात्मक, भावात्मक, दार्शनिक आदि शैली-रूपों के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति को पूर्ण सम्प्रेषणीय बनाया है।
उपसंहार :-
यद्यपि महाकवि और लोकतंत्र के साधक गोस्वामी तुलसीदास अपनी अमर कृति रामचरितमानस के प्रारम्भ में ही घोषित करते हैं कि- स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा किन्तु उनका यह स्वान्तः सुखाय परान्तः सुखाय ही है, क्योंकि पर दुःख द्रवहिं संत सुपुनीता के उद्घोषित, परदुःख-कातर तुलसी जैसे संत-जनों के अन्तःकरण में अपना क्या होता है। वे तो परहित में फूलने-फलने वाले अम्बतरु होते हैं, जो पत्थर का प्रहार करने वाले को भी मधुर फल प्रदान करते हैं।
अपने इसी महामहिम व्यक्तित्व के कारण तुलसी मेरे प्रिय हैं।
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