मेरी प्रिय पुस्तक पर निबंध
अथवा रामचरितमानस पर निबंध
अथवा भारतीय संस्कृति में रामचरितमानस का योगदान
अथवा गोस्वामी तुलसीदास और रामचरितमानस
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Essay on my favorite book Ramcharitmanas |
रूपरेखा :-
- प्रस्तावना
- विषय-वस्तु
- मुझे प्रिय क्यों-
- समन्वय की सुरसरि
- जीवन-मूल्यों का संरक्षक
- लोक-संग्रह का मानसार
- धर्म और अध्यात्म का सुलभ-आख्यान
- आशा और विश्वास का आकाशदीप
- काव्य-वैभव
प्रस्तावना:-
क्रूर आक्रान्ताओं के दुःशासन द्वारा जब जन-संस्कृति की पांचाली निर्लज्जता से नग्न की जा रही थी;
निराश आस्थाओं और विश्वासों के चरण, जब पराभव के अंधकार में डगमगा रहे थे; तब जिस महान ग्रन्थ ने अपनी वटवृक्षी अभय-छाया और आश्रय प्रदान कर, हिन्दू-जाति के जीवन प्रांगण में लोकरक्षक भगवान राम को मानवीयता के चोले में उतारा था, वह अमर कृति रामचरितमानस आज भी भव-तापों से तप्त कोटि-कोटि जनों का कंठहार बनी हुई है। यह ग्रन्थ मेरा भी श्रद्धेय है।
विषयवस्तु :-
राम के पावन चरित्र को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के चार घाटों में सँजोकर तुलसी ने मानस-मानसर की रचना की है। सूर्यवंशी महराज दशरथ को कुलगुरु वशिष्ट के अनुग्रह से वृद्धावस्था में चार पुत्रों की प्राप्ति हुई। विश्वामित्र के साथ जाकर राम ने राक्षसी ताड़का का वध और जड़-अहिल्या का उद्धार किया। जनकपुर में शिव-धनुष को खंडित कर उन्होंने सीता का पाणिग्रहण किया। कैकेयी के द्वेष भाव ने राम को चौदह वर्षों के लिए वन को निर्वासित कराया। सीता और लक्ष्मण ने भी वनवास में राम का साथ दिया।
लंकाधिपति राक्षसराज रावण द्वारा सीता का अपहरण किया गया । राम वनवासी वानर, भल्लूक आदि जातियों को संगठित करके रावन की अत्याचारी सत्ता का विनाश किया लंका-विजय के पश्चात राम जानकी और लक्ष्मण सहित अयोध्या लौटे और भरत ने उनके न्यास-तुल्य रक्षित राज-सिंहासन को उन्हें सादर सौंप दिया।
महाकवि तुलसी ने अपनी अद्वितीय प्रतिभा की विभूति से इस गाथा को जन-मन-हारिणी, पाप-संहारिणी और आश्वस्ति की अभय शंख-ध्वनि बनाकर प्रस्तुत किया है। यह कृति मात्र एक धर्मग्रन्थ नहीं है, अपितु विश्व-साहित्य में तुलसी की यशपताका है।
मुझे प्रिय क्यों :-
इस महान ग्रन्थ में मेरी प्रीति और श्रद्धा का आधार वे लोकमंगलकारी अनुष्ठान है जो हर व्यक्ति को संशय में समाधान, संकट में परित्राण, द्विविधा में मार्गदर्शन और जीवन-मूल्यों में आस्था एवं बल प्रदान करते हैं ; यथा -
समन्वय की सुरपरि :-
रामचरितमानस लोकपावनी गंगा है, जिसमें समाज के हर वर्ग को संताप-शीतल होने का सुयोग मिला है,जिसमें सभी के उद्धार का मार्ग प्रशस्त किया गया है। उसमें लोक और शास्त्र को,भक्ति और ज्ञान को, पंडित और सामान्यजन को, गृहस्थी और सन्यासी को समन्वय का मार्ग दिखाया गया है।
जीवन-मूल्यों का संरक्षक :-
जीवन के हर क्षेत्र को रामचरितमानस ने उदात्त जीवन-मूल्यों का वरदान प्रदान किया गया है। गृहस्थ हो या सन्यासी, ब्रह्मचारी हो या परिवारी, पंडित हो या साधारणजन, राजा हो या प्रजा- सभी को अपने आचरण का मानक स्वरूप इस ग्रन्थ-दर्पण में देखने को मिल जाता है। जीवनादर्शों में डगमगाते विश्वासों को रामचरितमानस ने आत्मविश्वास से परिपूर्ण बनाया है। आदर्श पिता, पुत्र, माता, पत्नी, भाई, गुरु, शिष्य, भक्त, और आराध्य ही नहीं आदर्श-शत्रु का स्वरूप भी गोस्वामीजी ने इस महान कृति में प्रस्तुत किया है।
लोक-संग्रह का मानसर :-
महाकवि तुलसी का काव्यादर्श लोकहित या लोकमंगल है। भगवान राम के लोकरक्षक स्वरूप को अवतरित करके उन्होंने अस्त-व्यस्त और त्रस्त लोकमन को अभय प्रदान किया था। इस ग्रन्थ की रचना का उद्देश्य न यश कमाना था और न राज्याश्रय की आकांक्षा। यह तो विशुद्ध लोकोपकार की साधना थी और आज भी है। उनके वर्णाश्रम के मानचित्र में हर वर्ण और हर आश्रम को सम्मान के सुरंग से रँगा गया है। उनके राम शबरी के झूठे बेर खाते हैं और उनके वशिष्ठ निषाद को गले लगाते हैं -
राम सखा मुनि बरबस भेंटा। जनु महि लुठत सनेह समेटा।।
धर्म और अध्यात्म का सुलभ आख्यान:-
महामना तुलसी ने जन-साधारण को नाना पुराण निगमागम-सार का सुगम संग्रह एक स्थान पर सुलभ करा दिया है। धर्म और दर्शन की गूढ़ पहेलियों को लोक-धर्म के सहज स्वरूप में प्रस्तुत करके ही मानस ने महान लोकप्रियता अर्जित की है। हर धर्म और संप्रदाय उसे संकोच-रहित होकर अपना सकता है। वस्तुतः उत्तर भारत का हिन्दू धर्म तुलसी-धर्म या मानस-धर्म कहा जा सकता है।
आशा और विश्वास का आकाशदीप :-
निराशा और असहायता के महासागर में डूबते भारतीय समाज के जलयान को इसी ग्रन्थ-रत्न ने आकाशदीप बनकर नवजीवन की ज्योति दिखाई थी। आज भी यह ग्रन्थ जीवन के जटिलतम क्षणों में मनुष्य का मार्गदर्शन करने में समर्थ है। इसका पात्र-जगत पग-पग पर शंकाओं और दुश्चिन्ताओं का समाधान करता है।
रामचरितमानस लोकपावनी गंगा है, जिसमें समाज के हर वर्ग को संताप-शीतल होने का सुयोग मिला है,जिसमें सभी के उद्धार का मार्ग प्रशस्त किया गया है। उसमें लोक और शास्त्र को,भक्ति और ज्ञान को, पंडित और सामान्यजन को, गृहस्थी और सन्यासी को समन्वय का मार्ग दिखाया गया है।
जीवन-मूल्यों का संरक्षक :-
जीवन के हर क्षेत्र को रामचरितमानस ने उदात्त जीवन-मूल्यों का वरदान प्रदान किया गया है। गृहस्थ हो या सन्यासी, ब्रह्मचारी हो या परिवारी, पंडित हो या साधारणजन, राजा हो या प्रजा- सभी को अपने आचरण का मानक स्वरूप इस ग्रन्थ-दर्पण में देखने को मिल जाता है। जीवनादर्शों में डगमगाते विश्वासों को रामचरितमानस ने आत्मविश्वास से परिपूर्ण बनाया है। आदर्श पिता, पुत्र, माता, पत्नी, भाई, गुरु, शिष्य, भक्त, और आराध्य ही नहीं आदर्श-शत्रु का स्वरूप भी गोस्वामीजी ने इस महान कृति में प्रस्तुत किया है।
लोक-संग्रह का मानसर :-
महाकवि तुलसी का काव्यादर्श लोकहित या लोकमंगल है। भगवान राम के लोकरक्षक स्वरूप को अवतरित करके उन्होंने अस्त-व्यस्त और त्रस्त लोकमन को अभय प्रदान किया था। इस ग्रन्थ की रचना का उद्देश्य न यश कमाना था और न राज्याश्रय की आकांक्षा। यह तो विशुद्ध लोकोपकार की साधना थी और आज भी है। उनके वर्णाश्रम के मानचित्र में हर वर्ण और हर आश्रम को सम्मान के सुरंग से रँगा गया है। उनके राम शबरी के झूठे बेर खाते हैं और उनके वशिष्ठ निषाद को गले लगाते हैं -
राम सखा मुनि बरबस भेंटा। जनु महि लुठत सनेह समेटा।।
धर्म और अध्यात्म का सुलभ आख्यान:-
महामना तुलसी ने जन-साधारण को नाना पुराण निगमागम-सार का सुगम संग्रह एक स्थान पर सुलभ करा दिया है। धर्म और दर्शन की गूढ़ पहेलियों को लोक-धर्म के सहज स्वरूप में प्रस्तुत करके ही मानस ने महान लोकप्रियता अर्जित की है। हर धर्म और संप्रदाय उसे संकोच-रहित होकर अपना सकता है। वस्तुतः उत्तर भारत का हिन्दू धर्म तुलसी-धर्म या मानस-धर्म कहा जा सकता है।
आशा और विश्वास का आकाशदीप :-
निराशा और असहायता के महासागर में डूबते भारतीय समाज के जलयान को इसी ग्रन्थ-रत्न ने आकाशदीप बनकर नवजीवन की ज्योति दिखाई थी। आज भी यह ग्रन्थ जीवन के जटिलतम क्षणों में मनुष्य का मार्गदर्शन करने में समर्थ है। इसका पात्र-जगत पग-पग पर शंकाओं और दुश्चिन्ताओं का समाधान करता है।
काव्य वैभव :-
एक कलाकृति के रूप में भी रामचरितमानस का महत्व कम नहीं है। वस्तुतः विश्व-साहित्य का अंग मानने में, उसके काव्य-वैभव ने ही काव्य-प्रेमियों को बाध्य किया है। भावपक्ष का विस्तार और गहराई तथा कलात्मकता का मनमोहक वैभव, दोनों ही मानस में उपस्थित हैं। जीवनादर्शों की प्रतिष्ठा, लोकमंगल की भावना और भव्य सन्देश जहाँ उसके भावपक्ष की प्रतिष्ठा बढ़ा रहे हैं वहीं रस, छंद, अलंकार, भाषा और शैली का वैविध्य काव्य-रसिकों का कंठहार बना हुआ है। क्या उपर्युक्त विशेषताएं एक ग्रन्थ के प्रिय होने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकतीं ?
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