राष्ट्रभाषा हिंदी पर निबंध
अथवा राष्ट्रभाषा हिंदी का भविष्य
अथवा राष्ट्रभाषा का महत्व
अथवा भारत की राष्ट्रभाषा
अथवा भारत की राष्ट्रभाषा समस्या और हिंदी
अथवा राष्ट्रभाषा हिंदी की समस्याएँ




Essay on National Language Hindi
Essay on National Language Hindi



रूपरेखा :-


  • प्रस्तावना
  • भारत की भाषाएँ
  • राष्ट्रभाषा की आवश्यकता
  • राष्ट्रभाषा की विशेषताएँ
  • हिंदी ही राष्ट्रभाषा क्यों
  • निरर्थक-आरोप और तर्कवाद
  • वर्तमान स्थिति
  • उपसंहार





प्रस्तावना :-

यदि एक स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र की अपनी कोई राष्ट्रभाषा न हो, वह उधर की भाषाओं से जन-आकांक्षाओं को समझना और समझाना चाहे, तो वह राष्ट्र सचमुच दया का पात्र है।

दुर्भाग्य से आज भारत की भी यही स्थिति है। देश को स्वतंत्र हुए अर्द्धशताब्दी से अधिक समय हो गया है किन्तु अभी यह अपनी राष्ट्रभाषा ही निश्चित नहीं कर पाया है। अभिजात्याता के पाखण्ड और प्रादेशिक आत्महीनताएँ राष्ट्र को एक व्यवहार की भाषा अपनाने से रोक रही हैं।

अँग्रेजी मानसिकता के भग्नावशेषों को गले में लटकाये फिरने वाले काले साहबों को आज भी देश में देखा जा सकता है। बड़े दुःख और दुर्भाग्य की बात है कि आज विदेशी भाषा का मोह नई पीढ़ी में बढ़ता ही जा रहा है।




भारत की भाषाएँ :-

भारत एक बहुभाषा-भाषी देश है। ऐसे देश में एक आम व्यवहार की भाषा का होना परम् आवश्यक होता है।   भारतीय संविधान-निर्माताओं ने इसी स्थिति को ध्यान में रखते हुए देश की चौदह भाषाओं को राष्ट्रीय भाषाएँ माना किन्तु व्यावहारिक सुविधा और प्रशासन की दृष्टि से एक राष्ट्रभाषा या राजभाषा का होना भी परम आवश्यक समझा गया। यह पद हिंदी को प्रदान किया गया है। 

हिंदी को सार्वजनिक व्यवहार की भाषा बनाने के पीछे सर्वाधिक योगदान अहिन्दी-भाषी विद्वानों और नेताओं का ही था। डॉ सुनीतिकुमार कुमार चटर्जी, श्रीयुत राजगोपालाचारी, तिलक, महात्मा गाँधी, दयानन्द सरस्वती आदि सभी हिंदी-समर्थक अहिन्दी-भाषी ही थे।

हिंदी को राष्ट्रभाषा-पद पर प्रतिष्ठित होने के लिए 15 वर्ष का समय निश्चित किया गया था।  किन्तु कुछ तो हिंदी-वादियों के अतिरेकपूर्ण आचार ने और कुछ प्रादेशिकता के ज्वार ने हिंदी-विरोध की ऐसी ज्वाला सुलगा दी की तमिलनाडु में बहुत ही घटिया स्तर का हिंदी-विरोध चल पड़ा।




राष्ट्रभाषा की आवश्यकता :-

एक सार्वदेशिक भाषा के बिना न तो प्रशासनिक कार्य चल सकता है और न राष्ट्रीय भावना का सही अर्थों में विकास हो सकता है। विश्व के अनेक भाषा-भाषी राष्ट्रों में किसी एक भाषा को ही सामान्य व्यवहार या राजकाज की भाषा बनाया गया है।

कोई विदेशी भाषा राष्ट्रभाषा का स्थान नहीं ले सकती  स्वार्थ, अहमन्यता या द्वेषवश अंग्रेजी को भारत की सरकारी भाषा बनाये रखने का प्रयास आत्मसम्मान और विवेक के विरुद्ध है।  जिस भाषा को देश के दो प्रतिशत व्यक्ति भी सही ढंग से न समझते हों और न प्रयोग में ला सकते हों, उसे राष्ट्रभाषा की समकक्षता प्रदान करने की कुचेष्टा और सनक को क्या कहा जाये ?

अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के सामने ऐसे लोग कैसे सिर उठाकर खड़े हो लेते हैं, यह सचमुच एक दुस्साहस की बात है।




राष्ट्रभाषा की विशेषताएं :-

राष्ट्रभाषा होने के लिए किसी भाषा में कुछ विशेषताएँ होने अनिवार्य होता है।  सर्वप्रथम गुण उस भाषा की व्यापकता है। जो भाषा देश के सर्वाधिक जनों और सर्वाधिक क्षेत्र में बोली और समझी जाती हो वही राष्ट्रभाषा पद की अधिकारिणी होती है। भाषा की समृद्धता उसकी दूसरी विशेषता है। उस भाषा का शब्द-समुदाय ज्ञान-विज्ञान की सभी उपलब्धियों को व्यक्त करने की क्षमता रखता हो।

धर्म, दर्शन, विज्ञान, सामाजिक परिवर्तन, अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य आदि सभी-कुछ उस भाषा द्वारा जनसाधारण तक पहुंचाया जा सके। तीसरी विशेषता उसकी सरलता है। अन्य भाषा-भाषी उसे बिना कठिनाई सीख सकें। उस भाषा की लिपि भी सरल और वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित हो तथा उस भाषा में निरंतर विकसित होने की सामर्थ्य हो।


उपर्युक्त विशेषताओं के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर समस्त भारतीय भाषाओं में हिंदी ही राष्ट्रभाषा की अधिकतम योग्यता रखती है। देश की अधिसंख्यक जनता द्वारा वह बोली एवं समझी जाती है। ज्ञान-विज्ञान के विविध विषयों पर उसमें साहित्य-निर्माण हुआ है और हो रहा है।

तकनीकी और पारिभाषिक शब्दावली के लिए जहाँ उसे संस्कृत का समृद्ध शब्द-भण्डार प्राप्त है। वहीं उसकी पाचन-शक्ति भी उदार है। नवीन शब्दावली के निर्माण में वह प्रचलित एवं रूढ़ शब्दों को यथावत स्वीकार भी कर रही है।
वह सीखने में सरल है और विकास की गति के साथ कदम मिलाने की योग्यता वह सिद्ध कर चुकी है। उसकी लिपि पूर्ण वैज्ञानिक है।
इस प्रकार हिन्दी ने स्वयं को राष्ट्रभाषा का उत्तरदायित्व सँभालने के लिए गंभीरता से तैयार किया है।




हिन्दी ही राष्ट्रभाषा क्यों :-

एक आदर्श राष्ट्रभाषा या राजभाषा के लिए जो विशिष्टतायें आवश्यक होती हैं वे सभी हिंदी में विद्यमान हैं। भारत में और भारत के बाहर भी वह बोली और समझी जा रही है। भारत की अन्य भाषाओं से श्रेष्ठ होने के कारण नहीं बल्कि अपनी व्यापक स्वीकृति और योग्यता के विकास के आधार पर हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा स्वीकार किया जाना चाहिए।

आखिर अंग्रेजी उपर्युक्त कसौटियों पर हिंदी के आगे कहाँ ठहरती है ? फिर भी इस अस्वाभाविक स्थिति को क्यों ढोया जा रहा है ?

इसके पीछे मिथ्या श्रेष्ठता-भाव और क्षुद्र राजनीति ही काम कर रही है।




निरर्थक आरोप और तर्कवाद :-

हिंदी का विरोध न तकनीकी आधार पर है और न गुणवत्ता के आधार पर एक बार उसे उत्तर-दक्षिण, आर्य-अनार्य जैसी तुच्छ और निरर्थक अवधारणाओं का निशाना बनाया गया था। तमिलनाडु का हिंदी-विरोध मात्र एक भाषा के आधिपत्य की आशंका से प्रेरित नहीं था, उसके पीछे एक स्वतंत्र तमिलनाडु की, द्रविड़ श्रेष्ठता की प्रच्छन्न आकांक्षाएँ थीं जो इस राष्ट्र की नींव पर ही कुठाराघात था।

हिंदी की लिंग समस्या या लिपि की अवैज्ञानिकता आदि आरोप लगाने वाले, उसकी तुलना में कहीं अधिक अवैज्ञानिक भाषा- अंग्रेजी को गले का हार कैसे बनाये हुए हैं ?

देश की दो प्रतिशत जनता भी जिसमें विश्वास के साथ काम-काज न कर सके, सम्पर्क-भाषा बनाये रखने की वकालत के पीछे कौन-सी नियत काम करती है ?
इसे अच्छी तरह समझा जा सकता है।




वर्तमान स्थिति :-

आज की सबसे अधिक विडंबनामय स्थिति यह है कि आज हिंदी-भाषी ही हिंदी के शत्रु बने हुए हैं। निरंतर संक्रामक रोग की भाँति बढ़ रहे पब्लिक स्कूल, इंग्लिश मीडियम विद्यालयों के प्रति मूढ़-मुग्धता, पाश्चात्य वेश-भूषा, भाषा और अंदाज के प्रति विवेकहीन आसक्ति आदि हमको सांस्कृतिक दासता के अंधकूप की ओर ले जा रहे हैं। दूरदर्शन की भूमिका भी इस क्षेत्र में नितांत भतर्सनीय है।

गुडमॉर्निंग इंडिया जैसे प्रोग्रामों की भाषा आखिर किस देश की भाषा है। अपनी भाषा बोलने में शरमाने वाली युवा पीढ़ी शायद नहीं जानती कि वह धीरे-धीरे आत्मघाती मार्ग की ओर बढ़ रही है।




उपसंहार :-

हिंदी-दिवस मानकर अपने राष्ट्रभाषायी दायित्व की पूर्ति कर लेने वाले साहित्यकार और राजनीति की बलिवेदी पर देश के आत्मसम्मान और अस्मिता को चढ़ा देने को उद्यत नेतागण, भला हिंदी के साथ न्याय कैसे कर पाएँगें ?
इसके साथ न्याय तो सामान्य जन ही करेगा। आज नहीं तो कल, यह जादू सर चढ़कर बोलेगा। हिंदी अपना स्थान पाकर रहेगी। इसके लिए हिंदी-भाषियों को हिन्दीतर भारतीय भाषाओं के प्रति सम्मान और स्नेह प्रदर्शित करना होगा।
अहिन्दी-भाषा देशवासियों के मन में यदि कोई आशंकाएँ हो, तो उन्हें दूर करना होगा। हिंदी को नित्य नवीन और समय-सापेक्ष बनाये रखने का प्रयत्न भी करना होगा। हिंदी का सम्मान समस्त भारतीय भाषाओं का सम्मान है; स्वदेशी भावना का सम्मान है।  हिंदी भाषा का भविष्य अति उज्जवल है।

विदेशी महाविद्यालयों में हिंदी का अध्ययन अध्यापन सुचारु ढंग से हो रहा है। विदेशी छात्र अध्ययन में रूचि ले रहे हैं। यह विश्वभाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो रही है। हमारी आशाएँ फलवती होगीं यह विश्व के प्रत्येक देश में पढाई जायेगीं। जनजन की  भाषा बनकर यह समस्त विश्व भाषाओं पर छा जाएगी, इसका कारण इसकी वैज्ञानिकता है।
इसके लेखन, उच्चारण एवं श्रवण में समानता है। इसकी यह समानता एवं सरलता ही उसको सर्वोच्च भाषा पद पर प्रतिष्ठित करेगी।