वर्तमान समाज में नारी का स्थान पर निबंध
अथवा भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति
अथवा आधुनिक नारी की समस्याएँ
अथवा भारतीय समाज में नारियों की स्थिति
अथवा नारी शक्ति और भारतीय समाज




Essay on Woman's Place in Current Society
Essay on Woman's Place in Current Society



रूपरेखा :-


  • प्रस्तावना - नारी की आदर्श मूर्ति
  • भारतीय नारी का तिरस्कृत स्वरूप
  • पुरुष का अबाध शासन
  • अशिक्षा और वैधव्य का अभिशाप
  • आधुनिक नारी की भूमिका
  • नारी की बढ़ती भूमिकाएँ
  • नारी-प्रगति का स्वरूप
  • उपसंहार




प्रस्तावना :-

यह है भारतीय मानस का आदिशक्ति, अर्द्धंगिगी, गृहलक्ष्मी या नारी के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन। नारायण के साथ लक्ष्मी, शिव के साथ भवानी, राम के साथ सीता और कृष्ण के साथ राधा की आराधना - नारी-शक्ति की ही अर्चना है। अपाला, गार्गी, मैत्रेयी तथा विदुला की गौरवमयी परम्परा को भारतीय नारी ने आज तक निभाया है। पुरुष और समाज के प्रति अपने दायित्व का पूरी ईमानदारी से निर्वाह किया है किन्तु फिर भी उसे अबला, रमणी दारा जैसी संज्ञाओं से सम्बोधित होकर पुरुष की दासी तथा उपेक्षा और अनादर की पात्र बनना पड़ा है। यह भी भारतीय इतिहास का एक कटु व्यंग्य है। दुर्गा और काली, लक्ष्मी और सरस्वती के रूप में उसे पूजने वाले भारतीय नर ने नारी पर कम अत्याचार नहीं किए हैं ।


भारतीय नारी का तिरस्कृत रूप :-

भारतीय संस्कृति के पुजारी कविवर गुप्त ने कहा है -

अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आँचल में है दूध और आँखों में पानी।

इन पंक्तियों में अनायास भारतीय नारी का सच्चा चित्र अंकित हो गया है । पुरुष के वात्सल्य को अपने  आँचल के दूध से जीवन देने वाली नारी ने बदले में  ऑंसू ही पाए हैं । लगता है भारतीय-संस्कृति के शिल्पियों ने उसे सोने की बेड़ियों में बाँधने की पूरी चेष्टा की है। भारतीय नारी को शस्त्रों, स्मृतियों, पुराणों अउ संस्कृति के अध्यायों में मत ढूँढ़ों ; उसे पहचानना है तो भारतीय समाज के विडम्बना भरे वर्तमान में खोजो।




पुरुष का अबाध-शासन :-

शास्त्रों की दुहाई देने वाले महामानव तनिक विचार तो करें कि क्या उन्होंने नारी की आचार-संहिता बनाते समय किसी नारी से भी विचार-विमर्श किया था। सच तो यह है कि -

नर कृत शास्त्रों के बंधन, सब हैं  नारी को ही लेकर। अपने लिए सभी सुविधाएँ, पहले ही कर बैठे नर।।

पतिव्रताओं के आख्यानों से पुराणों भरे पड़ें हैं, पर पत्नी-व्रती पुरूषों की एक-आध कथा भूलेभटके ही मिलेगी। नारी पर आजीवन पुरुष का पहरा हमारे संस्कृतिकारों ने बड़े कलात्मक ढंग से बिठा दिया है। बचपन में पिता उसकी चौकसी करे, युवावस्था में उस पर पति का पहरा रहे और वृद्धावस्था में पुत्र उस पर नजर रखे, मानो वह जन्मजात अपराधिनी हो। उसकी चंचलता और चरित्र की शिथिलता पर सरस कल्पना कथा सुनाने वाले महापुरुषों ! अपना पाप उसके सर मत मढ़ो। उसे अप्सरा किसने बनाया है ? उसे नगर-वधू का अखण्ड सौभाग्य सौंपने वाला कौन है ? उसे सरे बाजार जिस्म के व्यापार के लिए मजबूर करने वाला कौन है ? उसे रमणी, कामिनी, भोग्या, दारा, कलत्र और वारांगना की पदवी से विभूषित करने वाला कौन है ? पुरुष ही न।




अशिक्षा, वैधव्य और पर्दे से पीड़ित :-

न जाने किस अपराध में स्त्री को वेद-अध्ययन से प्राचीन शास्त्रकारों ने वंचित कर दिया। आज मुट्ठीभर नगरवासिनी बालिकाएँ भले ही विद्यालयों से लाभ उठाती हों किन्तु भारत जहाँ निवास करता है वे गाँव आज भी नारी-शिक्षा की कल्पना करने में असमर्थ हैं। भारतीय नारी का दूसरा अभिशाप इसका वैधव्य है। विशेषकर हिन्दू विधवा तो कवि 'प्रसाद' के शब्दों में जगत का सबसे निराश्रित प्राणी है। पुरुष चाहे तो अनेक धर्मपत्नियों और उप-पत्नियों का वरण कर सकता है परन्तु नारी एक ही पति-व्रत की अधिकारिणी है। पुरुष विधुर होने पर मन चाहा विवाह कर सकता है परन्तु नारी विधवा होने किसी पुरुष की ओर देख भी नहीं सकती। वह अशुभ-दर्शना, अमंगलकारिणी मानी जाती है।  इस दोहरी आचार-संहिता ने ही समाज में अनैतिक-व्यभिचार को जन्म दिया है।

भारतीय नारी का तीसरा दुर्भाग्य 'पर्दा' है। नारी के मुख पर पर्दा डालकर निश्चिन्त होने वाले पुरुष ने वस्तुतः अपनी अक्ल पर पर्दा डाल दिया है ।  वह 'बड़ों' और 'अन्यों' की उपस्थिति में न तो बोल सकती है, न बैठ सकती है। चोरी के धन की भाँति उसे घर की चहारदीवारी में बंद रहना है। अपनी भावना, अपनी पीड़ा, अपनी आकुशलता में ही घुट-घुटकर मरते रहना है।




आधुनिक नारी की भूमिका :-

कोई भी अस्वाभाविक बंधन चिरस्थायी नहीं होती। शताब्दियों का कारावास भोगने वाली नारी भी आज करवट बदल रही है। वह पुरुष की दासी, पैरों की जूती, उसके मनोरंजन की पुतली, उसकी वासनामयी आँखों की मदिरा बनकर रहना नहीं चाहती है ।  वह सच्चे अर्थों में सहधर्मिणी बनना चाहती है । इसे उसका दुस्साहस, उसकी उदण्डता अथवा उसकी स्वच्छन्दता कहकर तिरस्कृत और उपेक्षित करने से काम नहीं चलेगा । उसके उचित अधिकार उसे मिलने ही चाहिए ।




नारी की बढ़ती भूमिकाएँ :-

आज भारतीय नारी अपनी प्रतिभा और भूमिका से जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को अलंकृत कर रही है ।  शिक्षा, विज्ञान, धर्म, राजनीति, और सेना- सभी में नारी की उपस्थिति दर्ज हो चुकी है । ग्रामीण क्षेत्रों में भी नारी-चेतना के स्वर सुनाई दे रहे हैं किन्तु यह मात्रा बहुत अपर्याप्त है । नारी को पुरुष की दया को नहीं, स्वावलम्बन और आत्मविश्वास को अपनी भूमिका का आधार बनना है ।




नारी प्रगति का स्वरूप :-

भारतीय नारी की प्रगति या स्वावलम्बन का स्वरूप क्या हो, या कितना हो, इसका निर्णय पुरुष ने अपने जिम्मे ले रखा है । नारी स्वावलम्बन का स्वरूप क्या हो यह विचारणीय है । क्या पाश्चात्य-नारी का अनुकरण ही उसकी प्रगति और स्वावलम्बन है ? अपनी संस्कृति और परम्पराओं को अधिक तर्कसंगतता और भव्यता से अपनाकर भी भारतीय नारी स्वावलम्बी बन सकती है । पाश्चात्य-संस्कृति में उसे एक विज्ञापन सामग्री बनाया है । केवल कुछ मुट्ठीभर तथाकथित स्वावलम्बिनी या मॉड नारियों के मॉडल बनकर धन अर्जित कर लेने से इस देश की करोड़ों नारियों की समस्या हल नहीं हो सकती ।  विश्वसुन्दरी का ताज पहनाकर नारी को भ्रमित करने वाला पुरुष-समाज क्या इस तरह के भौंड़े आयोजनों द्वारा नारी-सौन्दर्य का सम्मान करता है ? इससे बड़ा झूठ और क्या हो सकता है ? नारी को नंगी या अधनंगी देखने की वासना और अपना धन्धा चमकाने का कौटिल्य ही उसके पीछे होता है ।

स्वतंत्रता और समानता, विवेक से शासित और सहयोग से अनुप्राणित होनी चाहिए । भारतीय नारी को अपना मौलिक और तेजस्वी व्यक्तित्व विकसित करना होगा । इसके लिए उसकी अपनी संस्कृति में भी पर्याप्त अवसर हैं । उसे संगठित होकर सामाजिक कुरीतीयों और शोषण से मुक्ति प्राप्त करनी होगी ।




उपसंहार :-

आज लोकसभा, राज्यसभा और विधान सभाओं में स्त्रियों को 33 % आरक्षण की माँग उठाई जा रही है ।  इस माँग का मंच कोई व्यापाक आधार वाला महिला संगठन न होकर जोड़-तोड़ और भीड़-मनोविज्ञान के सहारे सदनों में गए मुट्ठीभर लोग हैं । सच कहा जाए तो आरक्षण, महिला के लिए एक गाली से कम नहीं है ।  ग्राम-प्रधान के आसन पर बिठा दी गई पत्नियाँ ( महिलाएँ ) आज भी पतियों के 'रबर-स्टाम्प' की तरह कार्य कर रही हैं। आरक्षण से मुक्ति ही तो नारी-स्वावलम्बन का मूलमंत्र है। आरक्षण तो अब एक राजनीतिक कुटिलता का रूप ले चुका है । व्यक्ति को मौलिक प्रतिभा के हनन का कैसा सम्मोहक आविष्कार राजनीतिज्ञों ने कर लिया है । उनके पास अब हर रोग की एक ही रामबाण दवा है-आरक्षण। महिलाओं को आरक्षण से नहीं अपनी योग्यता और दम-खम से अपने अधिकार पाने की शपथ लेनी चाहिए । उनको उद्धार के लिए राम की चरण-रज को नहीं बल्कि मनस्विनी सीता की भू-समाधि को अपना आदर्श बनना चाहिए ।