बढ़ती जनसंख्या पर निबंध
अथवा बढ़ती जनसंख्या : एक गम्भीर समस्या
अथवा जनसंख्या नियंत्रण
अथवा बढ़ती जनसंख्या घटते साधन
अथवा जनसंख्या नियंत्रण में युवावर्ग का योगदान
अथवा जनसंख्या वृद्धि - समस्या एवं समाधान




Essay on Growing Population
Essay on Growing Population



रूपरेखा :-

  • प्रस्तावना
  • बढ़ती जनसंख्या की समस्या
  • जनसंख्या  वृद्धि के दुष्परिणाम
  • नियंत्रण के उपाय
  • उपसंहार





प्रस्तावना :-

रेलों में भीड़, विद्यालयों में स्थान नहीं, सड़कों पर निकलना मुश्किल, वेतन थोड़े पड़ रहे हैं, वस्तुएँ कम होती जा रही हैं। पानी पर कतारें, राशन पर लाइनें, एक स्थान खाली हुआ सैकड़ों प्रार्थना-पत्र आ गए। जहाँ देखिये भीड़-भाड़, शोर, तनाव, झगड़े। ऐसा पहले तो न था। हाँ, बड़े-बूढ़े लोग ऐसा ही कहते हैं। वे वीरान सड़के, सुनसान दोपहरियाँ, दुकानदार बुला-बुलाकर सामान देते थे। अब तो उन्हें बात करने की फुर्सत नहीं। ऐसा क्यों हो रहा है ? एक ही उत्तर, सिर्फ एक ही कारण, जनसंख्या की असाधारण वृद्धि। एक अनार सौ बीमार। फिर कैसे हो उपचार।

 "जस-जस सुरसा बदन बढ़ावा। तासु दुगुन कपि रूप दिखावा।"

रोज सुनते हैं कि नए कारखाने, नए उत्पादन-केंद्र खुल रहे हैं। पर यह सब कहाँ जा रहा है ? प्रतिदिन जन्म हजारों पेटों में।




बढ़ती जनसंख्या की समस्या :-

आज जनसंख्या-वृद्धि भारत के लिए विकट समस्या बन गई है। समाज की सुख-सम्पन्नता को एक भयंकर चुनौती। महानगरों में कीड़े-मकोड़ों की भाँति अस्वास्थ्यकर घोंसलों में आदमी भरा पड़ा है। न धुप, न हवा, न पानी, न दवा। पीले, निराश, दुर्बल चेहरे। यह संकट अनायास नहीं आया है। सन्तानों को ईश्वरीय विधान और वरदान मानने वाला भारतीय समाज ही इस रक्तबीजी-संस्कृति के लिए जिम्मेदार है। चाहे खिलाने को रोटी और पहनाने को वस्त्र न हों, शिक्षा को शुल्क और रहने को छप्पर न हो लेकिन अधभूखे, अधनंगे बच्चों की कतारें खड़ी करना हर भारतीय अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता है। यही कारण है कि प्रतिवर्ष एक ऑस्ट्रेलिया यहाँ की जनसंख्या में जुड़ता जा रहा है। यदि इस जन-वृद्धि पर नियंत्रण न हो सका तो हमारे सारे प्रयोजन और आयोजन व्यर्थ हो जाएँगें। धरती पर पैर रखने की जगह नहीं बचेगी। भारत की जनसंख्या बढ़कर अब सेवा अरब को पार कर गई है। कुछ तो देश में मक्खी-मच्छर की तरह बढ़ी है कुछ विदेशी घुसपैठिये टिट्टि दल की भाँति आ जाते हैं।




जनसंख्या-वृद्धि के दुष्परिणाम :-

जब किसी समाज के सदस्यों की संख्या बढ़ती है तो उनके भरण-पोषण के लिए जीवनोपयोगी वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है, परन्तु वस्तुओं का उत्पादन तो गणितीय क्रम से होता है और जनसंख्या रेखागणित की दर से बढ़ती है। फलस्वरूप जनसँख्या और उत्पादन में चोर-सिपाही का खेल शुरू हो जाता है। आगे-आगे जनसंख्या दौड़ती है और पीछे-पीछे उत्पादन-वृद्धि। वास्तविकता यह है कि उत्पादन-वृद्धि के सारे लाभों को जनसंख्या की वृद्धि व्यर्थ कर देती है। आज हमारे देश-विदेश में यही हो रहा है। जनसंख्या-वृद्धि समस्याओं की समस्या है। बढ़ती मँहगाई, बेरोजगारी, खेतिहर भूमि की कमी, उपभोक्ता वस्तुओं का अभाव, यातायात की कठिनाई-सबके मूल में यही बढ़ती जनसंख्या है।  

जनसंख्या-वृद्धि देश के विकास और प्रगति की भी शत्रु है। सारी योजनाएँ विकास-कार्यक्रम और उत्पादन-वृद्धि इस सुरसा के मुँह में समाते चले जा रहे हैं।




नियंत्रण के उपाय :-

आखिर समाज के मंगल की विनाशिका इस जनसंख्या-वृद्धि से कैसे मुक्ति मिलेगी ? सीधा-सा उत्तर है कि जनसंख्या पर नियंत्रण हो, कम सन्तानें पैदा हों। इस देश के रूढ़िग्रस्त और अंधविश्वासी समाज को यह विचार चौंकाने वाला और ईश्वर के प्रति उपराधतुल्य प्रतीत होना ही चाहिए, क्योंकि उन्हें तो बताया गया है कि यह सन्तान तो भगवान की देन है । इस प्राकृतिक विधान में हस्तक्षेप घोर अधर्म होगा परन्तु अब समाज की ऑंखें खुल चुकी हैं । हमारा प्रगतिशील समाज अच्छी  तरह समझ चुका है कि  उसकी आगामी पीढ़ियों का कुशलक्षेम परिवार-नियोजन पर ही निर्भर है। जनसंख्या-वृद्धि पर नियंत्रण हेतु कुछ उपाय निम्नवत हैं -


वैवाहिक आयु में वृद्धि :-

आश्रम-व्यवस्था अपने आप में जनसंख्या-नियंत्रण का स्वाभाविक उपाय थी। पच्चीस वर्षों का ब्रह्मचर्य ( छात्र ) जीवन जनसंख्या को संतुलित रखता था किन्तु परिस्थितिवश और धार्मिक अन्धविश्वासों के कारण हमारे समाज में बाल-विवाह की अनर्थकारी प्रथा चल पड़ी, जो कानून को धता बताती हुई भारत के ग्रामीण अंचलों में आज भी व्याप्त है। राजस्थान तो इस दिशा में कीर्तिमान स्थापित करता आ रहा है। यद्यपि सरकार ने विवाह की आयु पुरुष के लिए इक्कीस और स्त्री के लिए अठारह वर्ष निश्चित कर दी है तथापि इसका परिपालन केवल नगर-क्षेत्रों में ही हो रहा है। वैवाहिक आयु को बढ़ाना जनसंख्या-नियंत्रण का एक सहज उपाय है। इसे पुरुषों के पच्चीस वर्ष और स्त्रियों के लिए बाइस वर्ष किया जाना चाहिए। सामाजिक एवं धार्मिक नेताओं को इस दिशा में सक्रिय सहयोग करना चाहिए।


परिवार नियोजन :-

सन्तानों पर नियंत्रण करके भी इस समस्या से मुक्ति पाई जा सकती है। परिवार-नियोजन के अनेक साधन अब उपलब्ध हैं। आजकल इसी उपाय पर सबसे अधिक बल दिया जा रहा है। हर प्रचार-साधन का प्रयोग इस उपाय को लोकप्रिय बनाने के लिए किया जा रहा है किन्तु दूरदर्शन पर जिस फूहड़ और बचकाने ढंग से प्रचार किया जाता है, वह तुरंत बंद होना चाहिए।


राजकीय सुविधाएँ उपलब्ध कराके :-

परिवार-नियोजन करने वाले सरकारी कर्मचारियों को वार्षिक-वेतन-वृद्धि तथा पुरस्कार  देकर भी प्रोत्साहित किया जा रहा है। इसके लिए भी सरकारी नौकरियों में समुचित आरक्षण होना चाहिए।




उपसंहार :-

जनसंख्या की अनियन्त्रित वृद्धि सारे विकास-कार्यों को मिट्टी में मिला रही है। आगामी सर्वनाश से बचने हेतु इस पर काबू पाना अनिवार्य है। धर्म और संस्कृति का नाम लेकर इसका विरोध करने वाले या तो दिवान्ध है या फिर प्रपंची सीमित।  परिवार वालों को हर अवसर का पूरा लाभ दिया जाये, जैसे कि सरकारी नौकरी में, राजकीय सुविधाओं में, निर्वाचन में। कम से कम देश के नीति निर्माताओं और देशहित के जिम्मेदार पदों पर आरूढ़ लोगों के लिए तो यह अनिवार्य शर्त होनी चाहिए। राजनीतिक लोग आरक्षण के मौके की तलाश में रहते हैं लेकिन सीमित परिवारों के लिए आरक्षण की बात क्यों नहीं करते ?

जनसंख्या पर नियंत्रण आज देश की महानतम सेवा है। इसके लिए जोर-जबरदस्ती नहीं बल्कि तार्किक प्रेरणा और जीवनयापन की सुविधायें प्रयोग में लाई जाएँ। जो सीमित परिवार पर ध्यान नहीं देते उनको कम-से-कम सरकारी स्तर पर कोई सुविधा नहीं दी जानी चाहिए।