महँगाई की समस्या पर निबंध
अथवा महँगाई की समस्या और समाधान
अथवा बेलगाम महँगाई : बिलखते लोग
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Essay on Inflation Problem |
रूपरेखा :-
- प्रस्तावना
- महँगाई का ताण्डव
- महँगाई के दुष्परिणाम
- महँगाई के कारण
- महँगाई रोकने के उपाय
- उपसंहार
प्रस्तावना :-
भले ही हमारा देश राजनीतिक रूप से स्वतंत्र हो गया हो किन्तु आर्थिक परतन्त्रता का भार आज भी देश का सामान्य जन ढो रहा है। इतने सारे चुनावी वायदों के बाद भी खुशहाली की मंजिल मृग-मरीचिका की भाँति आगे ही आगे दौड़ लगा रही है। भारत का आम आदमी जी तो रहा है मगर यह जीना मरने से ज्यादा बुरा है । दिन-रात रोटी, कपड़ा और मकान की चिंता से ग्रस्त भारत का नागरिक, प्रशासन-तंत्र में भी अपनी आस्था खोता चला जा रहा है । महँगाई की स्थिति इतनी विकराल हो चुकी है कि जीने से भी अधिक महँगा मरना हो गया है । नैतिकता, प्रजातन्त्र और महान परम्पराओं की दुहाई देने वाले हमारे राजनेता बेहयाई की हद तक पहुँच चुके हैं । इससे भी बुरी स्थिति यह है कि समाज के विभिन्न वर्ग एक-दूसरे का निर्दय शोषण करने पर उतारू हैं ।
महँगाई का ताण्डव :-
आज बाजार में कदम रखते हुए हर स्वल्प वेतनभोगी का दिल काँपता है। भाव प्रतिदिन सुरसा की भाँति अपने मुख को फैलते जा रहे हैं। अनाज, चीनी, घी, तेल, ईंधन, कपड़ा - ऐसी कौन-सी चीज है जिसके भाव आसमान को नहीं चुम रहे हैं । पारिवारिक बजट का सारा निर्माण-कौशल भावों के निर्मम प्रहार से ढह जाता है। मेंढकों को तौलने के समान ही आज आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति कर पाना असम्भव हो गया है। हर पारिवारी के मस्तिष्क में सम्मान के साथ जीवन बिताने की चिंता घुमड़ती रहती है। चलिए, पैसे भी जुटाइए तो बाजार से वस्तुएँ ही गायब हैं। आम बाजार में अँधेरा है और काला बाजार जगमगा रहा है। अपनी गर्ज है तो मुँह-माँगे दाम दीजिये और बीज लेकर अपना रास्ता लीजिये।
जियो और जीने दो का अहिंसात्मक जीवन-दर्शन आज देश आज देश में पूरी तरह अपना लिया गया है। हर आदमी का हाथ दूसरे की जेब में है। फिर बताइये की चोर कौन है ? कोई व्यवसाय हो, कोई पेशा हो, हर आदमी हाथ में उस्तरा लिए तैयार है। आज मुसीबत है तो चंद सिरफिरे या क्षमा करें तो कहूं बेवकूफ लोगों की, जो सत्य और ईमानदारी की रस्सी गले में डाल जीते-जी फाँसी खा रहे हैं। ये बहती गंगा में हाथ न धोने या न धो पाने वाले इन्सान, मँहगाई की मार से दोहरे होकर जी रहे हैं। हर रिश्वत, हर घूँस, हर प्रवचना और हर एक चोरी को सही साबित करने का हक मँहगाई ने दिया है। क्या करें साहब बड़ी मँहगाई है बस इस नारे के सामने आपकी सारी चीख-पुकार बेकार है।
महँगाई के कारण :-
आखिर ये बेपनाह मँहगाई है क्यों ? अर्थशास्त्री कहते हैं कि माँग और उत्पादन का सन्तुलन ही भावों को स्थिर रखता है।
यदि किसी वस्तु की माँग अधिक है और उपलब्धि कम है तो वस्तु महँगी हो जाएगी। देखने-सुनने में यह सिद्धान्त बड़ा भोला-भाला और विश्वसनीय प्रतीत होता है परन्तु व्यवहार में हमारे चतुर व्यवसायियों ने इसके दोनों कान कुतर लिए हैं। अगर वस्तु का उत्पादन वास्तव में कम है तो उसे किसी भी कीमत पर बाजार में उपलब्ध न रहना चाहिये। वस्तुओं का आभाव केवल सामान्य लोगों के लिए है पैसे वालों के लिए नहीं। अधिक दाम दीजिये और मनचाहा माल लीजिये। मिट्टी का तेल केवल राशन की लाइन लगाने वालों के लिए अप्राप्त है लेकिन ब्लैक मार्केट में यह बराबर उजाला करता रहता है।
अतः महँगाई का कारण केवल उत्पादन की कमी नहीं है, बल्कि समाजद्रोही तत्तों द्वारा उत्पादन की जमाखोरी भी इसका प्रमुख कारण है। इसके कुछ अन्य कारण निम्नवत हैं -
- सरकारी नीतियाँ और राजनीतिक स्वार्थ भी महँगाई के जन्मदाता हैं। व्यापारियों से साँठ-गाँठ रखने वाले सरकारी अधिकारी कोटा, परमिट और पूर्व-बजट सूचनाओं द्वारा उनको लाभ कमाने का स्वर्ण अवसर प्रदान करते हैं।
- जनता की संग्रह-प्रवृति भी महँगाई में सहायक होती है। यहाँ पर ब्लैक वाले ही लाभ में रहते हैं। वे संग्रह में सक्षम होते हैं और सालभर के लिए भावों के परिवर्तन से निश्चिन्त हो जाते हैं।
- सामाजिक रूढ़ियों और अन्धविश्वास भी महँगाई में सहायक होते हैं। विभिन्न पर्वों पर अथवा विवाह आदि में तथा मृत्यु-भोज में शक्ति से बाहर व्यय करना, कोरी मूर्खतापूर्ण शान के प्रदर्शन के लिए कर्ज लेकर भी बाजार में जेब कटवाना आदि व्यवहार महँगाई में सहायक हो रहे हैं।
सादा जीवन का आदर्श आज उपहास और असभ्यता का प्रतीक बन गया है और इसी का परिणाम समाज को महँगाई के रूप में भोगना पड़ रहा है।
महँगाई को रोकने उपाय :-
जब-जब जनता अपनी लोकप्रिय सरकार से महँगाई की शिकायत करती है, तब-तब उसे बहलाया जाता है कि "यह तो एक विश्वव्यापी समस्या है। जीवन-स्तर उठाने के साथ-साथ महँगाई आना अनिवार्य है। जनसंख्या की वृद्धि हो गई है; अतः माँग बढ़ती जा रही है लेकिन उत्पादन उस गति से नहीं हो रहा है।" आदि-आदि। तो क्या महँगाई एक लाइलाज मर्ज है ? अगर कोई सरकार अपनी अक्षमताओं को इन बहानों के जाल से ढँकना चाहती है तो वह निश्चित ही शासन के योग्य नहीं है। ब्लैक करने वाले जमाखोरों और सरकार की आँखों में धूल झोंकने वाले व्यापारियों और उत्पादकों पर कठोर अंकुश ही महँगाई को नियंत्रित कर सकता है। अन्य उपाय हैं -
- बैंकों द्वारा व्यापारियों को मुक्त हस्त से उधार दिया जाना उनकी जमाखोरी की क्षमता को बढ़ता है, इस पर भी अंकुश होना चाहिए।
- एक समानान्तर वितरण और आपूर्ति-व्यवस्था की स्थापना सरकार द्वारा होनी चाहिए ताकि स्थाई रूप से भाववृद्धि और कृत्रिम महँगाई रोकी जा सके।
- जनता का आत्मनियंत्रण भी महँगाई को रोकने में काफी समर्थ है। सामान्य जीवन की अनेक वस्तुएँ ऐसी है जिनका उपयोग कुछ समय के लिए पूर्ण या आंशिक रूप से रोका जा सकता है। कोरी शान-शौकत, मिथ्या प्रदर्शन और रूढ़िवादी परम्पराओं से मुक्त होकर भी जान-साधारण महँगाई से जूझ सकता है।
- जीवन-स्तर को ऊँचा रखने का मिथ्याभियान हमसे अनेक अकर्म कराता है। सादा जीवन भारतीय संस्कृति का महान आदर्श है। जितना अधिक धन हम बाजार में झोंकेंगे उतनी ही महँगाई की आग भड़केगी।
- व्यापारी-वर्ग को भी सामाजिक उत्तरदायित्व स्वीकार करना चाहिए। केवल पैसा कमाने की प्रवृति पर आत्म-नियंत्रण करना चाहिए।
और सबसे अन्तिम उपाय जनता द्वारा महँगाई के विरुद्ध सीधी कार्यवाही है; जमाखोरों को पकड़वाना, ब्लैक मार्केट को समाप्त करना, घूसखोर अधिकारियों एवं भ्रष्ट व्यापारियों का घिराव करना, सामाजिक बहिष्कार करना आदि उपायों द्वारा महँगाई के विरुद्ध जेहाद छेड़ना आज अनिवार्य बनता जा रहा है।
उपसंहार :-
अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियाँ भी देश में महँगाई के लिए उत्तरदायी हैं। इन पर हमारा नियंत्रण नहीं हो सकता किन्तु आज मुक्त बाजार या उदार अर्थव्यवस्था के नाम पर विदेशी पूँजी को खुलकर खेलने के जो प्यार-भरे निमन्त्रण दिए जा रहे हैं, वे घोर महँगाई संकट अपने दामन में छिपाये हुए हैं। देशी बाजार पर जब विदेशी लोग हावी हो जाएँगे तो क्या स्थिति होगी, इसकी कल्पना करना कठिन नहीं है। अतः जनता सरकार, दोनों का प्रयास होना चाहिए कि महँगाई बढ़ाने वाले हर उत्पाद का दृढ़ता से दमन करें।
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